Thakur Sahab Nawal Singh Mokawat // ठाकुर साहब नवल सिंह मोकावत
*ठाकुर साहब नवल सिंह मोकावत- शेखावाटी के अद्वितीय यौध्दा*
*कछवाह राजवंश की मोकावत शाखा में जन्मे ठाकुर साहब नवल सिंह मोकावत ने अपने समय के कई महत्वपूर्ण युद्ध लड़े। जिनमें से "मावण्डा-मंढोली युद्ध", "माण्डण युद्ध", "लासवाड़ी का युद्ध" महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।*
*इन्हीं महत्वपूर्ण युद्धों में से एक है- ''मांडण युद्ध''*
जो सन् 1775 ई. में रेवाड़ी के पास माण्डण नामक स्थान पर शेखावतों और दिल्ली की शाही सेना के बीच लड़ा गया था।
उस समय नवल सिंह मोकावत खेतड़ी के गढ़ (भोपालगढ़) पर दुर्गाध्यक्ष थे,जो उधर से प्रदेश की रक्षा किया करते थे। जब दिल्ली की शाही सेना ने नजफकुली के नैतृत्व में दादरी व काणोड का किला छल से जीत लिया तब उन्होंने काणोड से पड़ाव उठाकर शेखावाटी प्रदेश में प्रवेश किया और सिंघाणा में जाकर खेमे रोप दिये।
सिंघाणा पहुंचकर नजफकुली ने अपने एक सेनाधिकारी को तोपें और घुड़सवार सेना के साथ खेतड़ी का गढ़ तोड़ने का आदेश दिया। नजफकुली के आदेश से पठान सेनापति खेतड़ी के गढ़ पर आक्रमण करने को चल पड़ा।
खेतड़ी के समीप पहुंचने पर पठान सेनाधिकारी ने नवल सिंह मोकावत के पास दूत भेजकर कहलाया कि यदि उसे अपनी जान प्यारी है तो फौरन किला खाली करके बाहर निकल आवे।नवल सिंह मोकावत जो अपने नाम से जाने जाते थे- पठान सेनाधिकारी की ऐसी बेहुदी अटपटी बात सुनकर आग बबूला हो उठे। उन्होंने दुर्ग प्राचीर की तीरकसों में लम्बी मार की बन्दूकें और रहकले लगाकर एवं बुर्जों पर तोपें चढ़ाकर तलहटी में खड़ी शाही सेना पर गोले और गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। भोपालगढ़ को मस्तक पर धारण किये खेतड़ी का ऊंचा पहाड़ तोपों की गर्जना से प्रतिध्वनित हो उठा। तोपों की दगने की आवाज सुनते ही पठान सेनापति भयभीत होकर भाग खड़ा हुआ।
अपने पठान सेनाधिकारी के पलायन का समाचार सुनकर नजफकुली ने स्वयं खेतड़ी पर आक्रमण करने का निश्चय किया।उसका आदेश मिलते ही युद्ध प्रयाण के जुझारू बाजे बजने लगे। इस पर फिरंगी समरू जो नवल सिंह मोकावत का पराक्रम "माउण्डा - मंढ़ोली" के युद्ध में पहले ही देख चुका था। उसने नजफकुली को समझाया कि खेतड़ी पर चढ़ाई करना बुद्धिमानी का काम नहीं है। नवल सिंह मोकावत युध्दोन्माद में मतवाले बन जब आक्रमण करते हैं तो तोपों की बाढ़ से भी उन्हें रोका नहीं जा सकता है। इनके रहते हुये भोपालगढ़ को आसानी जीता नहीं जा सकता हैं। अतः यह चढ़ाई रोक दी जावे।
समरू के कथन पर तनिक भी ध्यान न देकर हठ पूर्वक नजफकुली ने कहा - " समरू ? खेतड़ी के गढ़ पर जल्दी चढ़ाई करो। अजय माने जाने वाले दादरी और काणोड के किले मेंने देख लिए,जीत लिए। अब केवल यह खेतड़ी का किला देखना बाकी रहा है। जब तक इस किले को न जीत लूं , मुझे शांति नहीं मिलेगी। समरू ने नवाब को फिर समझाया कि नादानी मत करो। दादरी और काणोड के किलों की तुलना खेतड़ी के भोपालगढ़ से नहीं की जा सकती। दादरी और काणोड के किले सपाट भुमि पर खुले मैदान में बने हुए हैं, जबकि भोपालगढ़ पहाड़ों और झाड़ियों से घिरे उच्च पर्वत श्रृंग पर खड़ा है। वहां तक गोले फेंकने में छोटी तोपों की तो बात ही क्या - बड़ी और लम्बी मार की तोपें भी कारगर नहीं हो सकती! फिर नवल सिंह मोकावत जैसा यौध्दा उसकी रक्षा के लिये हर दम सन्नद्ध है। तब नजफकुली झुंझुनूं की तरफ बढ़ा। कील कांटे से लैस सेना नगाड़ों पर डंके दिलाती चल रही थी। क्यामखानियों के बेड़े को साथ लिये मित्रसेण हीर सेना के अग्रभाग में चल रहा था। तोपखाना लिये फिरंगी समरू उसके पीछे था। इस प्रकार रण साज से सजी दिल्ली की शाही सेना सुल्ताणा तक पहुंच गई,तब बिकानेर के महाराजा गज सिंह का पत्र नजफकुली को मिला, जिसमें उसे शेखावतों से युद्ध न करने की सलाह दी थी। इस पर नजफकुली सुल्ताणा से आगे नहीं बढ़ा। शाही सेना का पड़ाव वहीं डाल दिया गया और शेखावतों से बातचीत के द्वारा ही मामला तय करने का मार्ग अपनाया गया।
*ठाकुर साहब नवल सिंह मोकावत बड़े वीर पुरुष थे। वि.सं.1860 में खेतड़ी की सेना ने मराठों के विरुद्ध लासवाड़ी के युद्ध में जब अंग्रेजों की सहायता की तब कर्नल मेंसन की सेना में खेतड़ी के रसाले का संचालन नवल सिंह मोकावत किया। इस युद्ध में वे हमेशा की तरह बड़ी वीरता से लड़ें और अनेक शत्रुओं को रणभूमि में मार गिराया। अंत में मराठा सेना के जसवंत राव होल्कर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।*
*ठाकुर साहब नवल सिंह मोकावत की वीरता पर कवि ने कुछ लाइनें लिखी है,जो में यहां प्रस्तुत कर रहा हूं-*
नजफकुली कहे जो पठाण सेती,
बांधे कौन सगलां का इलाज जी।
येक बार देखों गढ़ खेतड़ी का',
हांको तोपखाना का जो साज जी।
यांका अमल किया जो सेखावतां ओं,
कोस चार पै इनका राज जी।
पान खाय पठाण नें कूच किया,
चला होय असवार सिरै वाज जी।।
भेजा हलकारा किलादार ही नें, बचा जीव थारा निकल जाय जी।
बाजे खूब नगारां पर डंका यारों नोलस्यंघ उठा गुस्सा खाय जी।
थीरीनाल और रहकला सु चलाया, दिया तोपखाना जो दगाय जी।
सुणी येक आवाज पठाण भागा, उठा सब पहाड़ धरराय जी।।
बाजै सुथरी ओर नोबतखाना,
आया समरू जद हजूर जी।
तूं तो चालै है देस सेखावतां कै,
करै बात आछी नहिं कूर जी।
मेरे तोपखाने की गिनती नांहिं,
करै मार तेगां भरपूर जी।
तेरा मार कर टूक ऐ उड़ाय देगा,
चाचा हो जायगी दिल्ली दूर जी।।
समरू सुणो कहत है नजफकुली,
बेगा खेतड़ी के गढ़ चाल जी।
देखों गढ़ काणोड ओर दादरी का,
रहा येक येही छाती पर सालं जी।
फिरंगी कहै किलो परबत जोर बांको,
लागै रहकलां नाहिं नालं जी।
चालै मत देस तूं सेखावतां कै, नोलस्यंघ गे रे कोई जालं जी।।
मित्रसेण हीर हरोलं चड्या,
सारा क्यानखानी संग लाया है।
गैल गैल फिरंगियां कूच कियो,
बेड़ा तोपखाना का हंकाया है।
नजफकुली चढ़ा है सिताब सेती,
बाज्या है नगारा साज रण का सजाया है।
बांच परवानां राजा गजस्यंघ का,
डेरा जाय सुरताणां में दिवाया है।।
1.गढ़ खेतड़ी का दुर्ग - भोपालगढ़
2.हलकारा - दूत, डाकिया, खबर लेकर जाने वाला धावक।
3.किलादार - दुर्गाध्यक्ष
4.नोलस्यंघ - नवल सिंह मोकावत।
5.थीरीनाल - तोड़ादार बंदूक, कंधे से लगाकर चलाने वाली बंदूक।
6.रहकला - गाड़ियों पर लगाकर चलाई जाने वाली छोटी तोपें।
7.धरराय - कम्पायमान होना, गूंजना, प्रतिध्वनित होना।
8.सुथरी - सुतरी, तुरही।
9.नोबतखाना - नक्कारखाना
10.समरू - जाति से जर्मन था।उसका असली नाम वाल्टर रैनहार्ड था।वह कुछ गेंहुएं रंग का था, इस कारण उसके साथी उसे सोम्ब्रे कहते थे - जिसका अर्थ मलिन होता है। यहां के लोग सोम्ब्रे के स्थान पर उसे समरू कहने लगे।
11.हजूर - नजफकुली।
12.साल - सालने वाला, चुभने वाला।
13.फिरंगी - समरू।
14.नाल - तोपें।
15.मित्रसेण - रेवाड़ी का जागीरदार राव मित्रसेण हीर।
16.हरोलं चढ्या - सेना के आगे होकर चला।
17.गैल गैल - पीछे-पीछे।
18.सिताब सेती - शीघ्रता से।
19.राजा गजस्यंघ - बीकानेर के महाराजा गजसिंह।
20.सुरताणा - सुल्ताणा नामक कस्बा,जो सिंघाणा तथा झुंझुनूं के बीच में है।
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